डॉ नेहा कुमारी जायसवाल
भारतीय राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास को आधुनिक इतिहास के स्वर्णिम युग के एक ऐसे महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में देखा जा सकता है, जिसने इस युग में हो रहे साम्राज्यों के विघटन, नए राष्ट्रों के जन्म और राजनीतिक विचारधाराओं की अभिव्यक्ति को इस प्रकार प्रभावित किया, जो आज भी हमारी दुनिया भर के देशों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार दे रहा है ।
यों तो राष्ट्रवाद का शाब्दिक अर्थ है अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम । यह अपने राष्ट्र की भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों में पायी जानेवाली सांस्कृतिक प्रेम एवं सामाजिक एकता की भावना है, जो किसी भी धर्म, जाति संप्रदाय या वर्ग विशेष की सीमाओं से परे है तथा राष्ट्रवाद को एक ऐसी विचारधारा के रूप में माना गया है, जो किसी राष्ट्र या राष्ट्र के प्रति वफादारी, समर्पण और निष्ठा पर जोर देती है और मानती है कि ऐसे दायित्व अन्य व्यक्तिगत या सामूहिक हितों से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं ।
भारत में राष्ट्रवाद की भावना वैदिक काल से ही आस्तित्वमान है । इस बात की पुष्टि कई साक्ष्यों के माध्यम से की जा सकती है । अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त, विष्णुपुराण, वायुपुराण, महाभारत के भीष्म पर्व, गरुड़पुराण तथा रामायण में भारत माता अर्थात जन्मभूमि का यशोगान जिस अद्भुत रूप में किया गया है, वह प्राचीन भारत में राष्ट्रवाद के अस्तित्व को प्माणित करती है ।
भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद की उदय की परिघटना उपनिवेश विरोधी आंदोलन के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई है । भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक दमन, असमान रोजगार के अवसर, विदेशी पूंजीपतियों के प्रति पक्षपात सहित ब्रिटिश शासन का बर्चस्व, तथा विश्व की अन्य शक्तियों द्वारा शोषण की अनवरत प्रक्रिया का आरंभ, विकास एवं उसके चरम सीमा तक पहुंचने की प्रक्रिया ने सुषुप्त अवस्था में पड़ी हुई राष्ट्रीय चेतना रूपी ज्वालामुखी को जागृत करने का कार्य किया ।
औपनिवेशिक शासको के खिलाफ संघर्ष ने राष्ट्र के लोगों में राष्ट्र के प्रति चेतना का संचार किया, जिससे लोग आपसी एकता की शक्ति को पहचानने लगे ।
यों तो बिहार में भी राष्ट्रवाद का विकास प्राचीन समय से ही हो चुका था, जिसका प्रमाण हमें कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र में देखने को मिलता है, जिसमें कौटिल्य द्वारा एक राष्ट्रीय शासक की आवश्यकता महसूस की गई है । मैंने बिहार में राष्ट्रवाद के विकास के संदर्भ में यहाँ हुए विद्रोहों तथा आंदोलनों का विवरण इस शोध पत्र में प्रस्तुत किया है । बिहार में जिस प्रकार से खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी का कम उम्र में अदम्य साहस का प्रदर्शन तथा सात शहीदों द्वारा किया गया बलिदान राष्ट्रवाद की पराकाष्ठा का ज्वलंत उदाहरण है ।
यहां के चंपारण आंदोलन में जनमानस की वास्तविक शक्ति के प्रदर्शन तथा उसकी सफलता ने पूरे राष्ट्र के सामने राष्ट्रवाद की एक नई तस्वीर प्रस्तुत की है, जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को नया मोड़ तथा एक मजबूत आधार प्रदान किया है । इन सभी राष्ट्रवादी महत्व की घटनाओं का वर्णन इस शोध पत्र में किया गया है ।
आज की पीढ़ी को राष्ट्रवाद की शक्ति से परिचित कराना अत्यंत आवश्यक है, जिससे उनमें यह समझ विकसित हो सके कि राष्ट्र के विकास और सम्मान के लिए एकजुट होकर बिना किसी संप्रदाय विशेष या धर्म विशेष की हितों को महत्व दिए बिना केवल राष्ट्रीय हित को महत्व देने के कारण ही आज हमें स्वतंत्र भारत में भयरहित, विकसित एवं स्वतंत्र जीवन जीने का सौभाग्य प्राप्त है । इसकी स्वतंत्रता और विकसित भारत के स्वप्न को पूरा करने के लिए राष्ट्रवाद का निरंतर विकास अति आवश्यक है ।
आज के आधुनिक समय में जब सभी राष्ट्रों के अंदर सांप्रदायिकता, धर्मान्धता फिर अपना सर उठा खड़ी है, ऐसे में यह शोध पत्र उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अपने विकास की चरम सीमा पर पहुंचे राष्ट्रवाद की शक्ति से आज के समय के विद्यार्थियों तथा शोधार्थियों को परिचित कराने में अत्यंत प्रासंगिक तथा महत्वपूर्ण है ।
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